Read this article in Hindi to learn about the various parts involved in the functioning of respiratory system in human body.

मानव शरीर करोड़ों कोशिकाओं से मिलकर बना है जो भिन्न कार्य करती हैं । विभिन्न कार्यों तथा इन कोशिकाओं के जीवन के लिए आक्सीजन की आवश्यकता होती है । कोशिकाओं को आक्सीजन रक्त के माध्यम से पहुंचती है तथा बेकार के पदार्थ जैसे कार्बन डाइआक्साइड आदि भी रक्त द्वारा ही ले जाये जाते हैं । कोशिकाओं व रक्त के बीच आक्सीजन व कार्बनडाइआक्साइड के आदान-प्रदान को “आन्तरिक श्वसन” कहते हैं ।

श्वसन तन्त्र का कार्य रक्त को आक्सीजन देना तथा कार्बन डाइआक्साइड को शरीर से बाहर निकालना है । हवा तथा रक्त के बीच फेफड़ों में होने वाले गैसों का आदन प्रदान “बाहरी श्वसन” कहलाता है । श्वसन तंत्र-जाल कंठ, स्वर यन्त्र, ट्रेकिया, व्रोकायी तथा फेफड़ों से मिलकर बना होता है ।

नाक:

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नाक की रचना के बारे में पहले ही बताया जा चुका है । नाक की आन्तरिक सतह सिलियेटेड इपीथीलियम से ढकी रहती है जिसमें ग्लोबलेट कोशिकायें होती हैं जो म्युकस बनाती हैं । म्युकस का कार्य सांस में पस्थित धूल के कणों (10 माइक्रान से बड़े) तथा बैक्टीरियाँ आदि को फेफड़ों तक पहुंचने से रोकना है ।

नाक में उपस्थित सीलिया इन बेकार के पदार्थों को नाक के बाहर निकालने का कार्य करते हैं । एक्सेसरी नेजल साइनस जो नाक में खुलते हैं भी सीलियेटिड इपीथीलियम से ढके रहते हैं । नाक के उपरी भाग में गन्ध के रिसेप्टर स्थित होते हैं ।

कण्ठ (फैरेंसक्स):

यह पेशियों से बनी हुई नली है जो श्वसन-तंत्र तथा पाचन-तन्त्र दोनों का एक भाग बनाती हैं । यह नाक, मुंह व स्वर-यन्त्र के पीछे स्थित होता है । इसकी लम्बाई 12-14 से॰मी॰ होती है । यह सिर के आधार से लेकर छठी सरवाइकल ब्रर्टिब्रा तक स्थित होता है तथा ग्रास नली में खुलता है । आगे की ओर यह नाक मुंह और स्वर यन्त्र में खुलता है तथा पीछे सर्विकल बर्टिव्रा से इसे लूज एरिओलर टिश्यू अलग रखता है । इसे तीन भागों में बांटा जा सकता है । नेजोफैरेक्स, ओरोफैरेक्स तथा लैरेंगोफैरेक्स ।

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नेजोफैरेंक्स कण्ठ का वह भाग है जो नाक के पीछे साफ्टपैलेट के ऊपर स्थित होता है । आगे की तरफ यह नाक के पिछले छिद्रो के द्वारा नाक से मिलता है । पीछे की तरफ यह इस्थमस द्वारा ओरोफैंरेक्स मे खुलता हैं । निगलते समय यह छिद्र बन्द हो जाता है । नेजोफैरेंक्स के दोनों तरफ आडिटरी ट्‌यूब खुलती है ।

इसकी छत या ऊपरी भाग में लिम्फोयड टिश्यू जिसे फैरेन्जियल टांसिल कहते हैं, स्थित होता है । इस लिम्फोमड टिश्यू की एट्रोफी प्यूबर्टी (यौवनावस्था) में शुरू होती है । ओरोफैरेंक्स साफट पैलेट से इपीग्लाटिस के ऊपरी भाग तक होता है ।

यह आगे की ओर मुँह से खुलता है जो ऊपर सापट पैलेट से, नीचे जीभ से तथा दोनों और पेशियों से बना होता है । ये पेशियां म्यूकस झिल्ली द्वारा ढकी होती हैं ओर पिलर्स आफ फाकिसस कहलाते हैं । दोनों तरफ इन पेशियों की परतों में पैलेटाइन टांसिल स्थित होते हैं ।

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लैरेंगोफैरेंक्स इपीग्लाटिस के ऊपरी भाग से लेकर छठी सर्वाइकिल वर्टिवा तक क्रिकवायड कार्टिलेज के पीछे स्थित होता है तथा उसके आगे यह ग्रास नली में खुलता है । स्वर-यन्त्र के दोनों तरफ यह दो पाउच बनाता है जिसे पायरीफार्म फोसा कहते हैं ।

कण्ठ की रचना:

कण्ठ की दीवारें तीन परत वाली होती है । म्यूकस, फाइब्रस एवं मस्कूलर परत । आर्टिरियल सप्लाई इक्सटरनल कैरोटिड़ आर्टरी की ब्रांचों से तथा कण्ठ की शिरायें इर्न्टनल जुगलर व फेशियल शिरा में खुलती हैं ।

कण्ठ की नर्व सप्लाई नवीं व दसवीं क्रेनियल नर्व तथा सिम्पैथेटिक तन्त्रिका-तन्त्र से होता है कण्ठ की लिम्फ वेसलस या तो सीधे डीप सरवाइकल ग्रुप की लिम्फ ग्रन्थियों में या रिट्रोफैरेन्जियल और पैराट्रेकियल लिम्फ ग्रन्थियों में खुलती हैं ।

स्वर यन्त्र (लैरेंक्स):

यह कई कीर्टिलेजों से मिलकर बना होता है जो लिगामेन्टो और झिल्लियों द्वारा आपस में जुड़ी होती हैं । कीर्टिलेजों में थायरायड कीर्टिलेज सबसे बड़ी होती है । यह दो चौकोर प्लेटों से मिलकर बनी होती है । (लेमाइना) जो आगे से मध्य में जुड़ी रहती है तथा लैरेन्जियल प्रोमीनेन्स या एडम्स ऐपल बनाती हैं इसके ऊपर एक गड्‌ढा होता है जिसे थायरायडनाच कहते हैं ।

ये दोनों प्लेटें पीछे की ओर काफी दूर-दूर होती हैं । लेमाइना का ऊपरी व निचला कोण उभरा हुआ होता है । निचले कोण से क्रिक्वायड कार्टिलेज जुड़ी होती है । क्रिक्वायड कार्टिलेज अंगूठी के आकार की होती है । इसमें एक लेमाइना पीछे की तरफ होता है तथा एक संकरी आर्च आगे की ओर होती है ।

लेमाइना की बगल की दोनों सतहों पर दो-दो फेसेट होते हैं । ऊपरी फेसेंट एरिटिन्वायड कर्टिलेज से तथा निचला थायरायड कर्टिलेज से जुड़ता है । अरिटिन्वायड कार्टिलेज पिरेमिड के आकार की होती है । जिसमें एक एपेक्स, एक आधार तथा तीन सतहें पिछली, एन्टिरोलेटल और एन्टिसेमीडियल होती हैं ।

आगे के कोण को वोकलप्रोसेस कहते हैं । जिससे वोकल लिगामेन्ट जुड़े होते हैं तथा बगल की सतहों से पेशियां जुड़ी होती हैं । एरिटिन्वायड कार्टिलेज का आधार कानकेव होता है जो क्रिक्वायड कीर्टिलेज के लेमाइना से जुड़ता है तथा इसका एपेक्स कार्निकुलेट कार्टिलेज से जुड़ता है ।

इपीग्लाटिस पत्ती के आकार की कार्टिलेज है इसका पतला निचला सिरा थाइरोइपीग्लाटिक लिगामेन्ट से थायरायड कार्टिलेज की पिछली सतह से थायरायड नाच के ठीक नीचे जुड़ा होता है । तथा इसका ऊपरी सिरा हायड अस्थि के पीछे जीभ के आधार के ऊपर उभरा होता है । आगे की सतह का निचला भाग हाइपोइपीग्लाटिक लिगामेंट द्वारा हायड अस्थि से जुड़ा होता है ।

स्वर यन्त्र की गुहा:

स्वर यन्त्र ऊपर की ओर कण्ठ में तथा नीचे ट्रेकिय में खुलता है । वर यन्त्र की म्युकस मेम्ब्रेन जीभ तथा कण्ठ को भी ढकती हैं । इसकी गुहा को तीन भागों में बांटा गया है क्योंकि इसके अन्दर म्युकस मेम्ब्रेन के दो फोल्ड होते हैं । ऊपरी फोल्ड को वेस्टीबुलर तथा नीचे वाले को (जो वोकल लिगामेंट को ढककर वोकल कार्ड बनाता है) वोकलफोल्ड कहते हैं ।

स्वर यन्त्र का रक्त संचार सुपीरियर एवं इन्फीरियर थायरायड आर्टरियों से होता है । शिरायें थायरायड वेन से इन्टरनल जुगलर वेन में रक्त ले जाती  है । इसकी नर्वसप्लाई लैरेन्जियल एवं रिकरेन्ट लैरेन्जियल नर्व से होती है । वोकल कार्ड के ऊपर का लिम्फ सुपीरियर डीप सरवाइकल लिम्फ ग्रन्थियों में एवं वोकल कार्डों के नीचे का इन्फीरियर डीपसरवाइकल एवं प्रीटेकियल लिम्फ ग्रन्थियों में जाता है ।

स्वर यन्त्र के कार्य:

1. हवा को कण्ठ से ट्रेकिया में पहुंचाना

2. निगलते समय खाने को सांस नली में जाने से रोकना ।

3. आवाज बनाना ।

कण्ठनाल: (ट्रेकिया):

ट्रेकिया, स्वर यंत्र से नीचे की तरफ जाने वाली लगभग 10 सेंटीमीटर लम्बी नली है । यह छठी सरवाइकल वर्टिब्रा से शुरू होकर पांचवी थोरेसिक वर्टिब्रा के ऊपरी भाग तक स्थित होती है । तथा नीचे यह दांयी व बांयी मुख्य व्रोन्क्राई में बंट जाती है । गर्दन में ट्रेकिया मध्य में स्थित होती है, लेकिन सीने में यह थोड़ा-सा दांयी तरफ को आर्च आफ एवोरटा द्वारा विस्थापित कर दी जाती है ।

ट्रेकिया के आसपास स्थित रचनायें:

गर्दन में आगे की ओर दो से चार कार्टिलेजिनस रिंग के सामने थायरायड ग्रन्थि का इस्थमस स्थित होता है । अगल-बगल दोनों तरफ थायरायड ग्रन्थि के लोब स्थित होते हैं । जो इसे कामन कैरोटिड धमनी से अलग करते हैं । इसके पीछे खाने की नली या इसोफेगस स्थित होता है ।

सीने में ट्रेकिया के आगे ऊपर से नीचे की ओर थाइमस ग्रन्थि के अवशेष ब्रेकियोकिफेलिक आर्टरी, बांयी कामन कैरोटिड आर्टरी, बांयी विक्लेवियन आर्टरी तथा आर्च आफ एवोरटा स्थित होता है जबकि ट्रेकिया के पीछे इसोफेगस स्थित होता है ।

रचना:

यह 18-20 अंग्रेजी अक्षर “C” के आकार की कार्टिलेज की रिंगों का बना होता है जो पूर्ण रूप से नहीं जुड़ी होती है । पीछे की तरफ से यह फाइब्रस टिश्यू की झिल्ली जिसमें खिंचने वाले तन्तु होते हैं द्वारा ढकी रहती है । ट्रेकिया की ग्रुहा सीलियेटेड कालमनर इपीथीलियम से ढकी होती । जिसमें बहुत सी गोवलेट कोशिकाएं पायी जाती हैं ।

म्यूकस मेम्ब्रेन के नीचे कनेक्टिव टिश्यू होती है जिसमें नर्व एवं रक्त नलिकायें पायी जाती हैं । ट्रेकिया की नर्व सप्लाई वेगस नर्व की तंत्रिकाओं, रिकरेंट लैरेन्जियल नर्व तथा सिम्पैथेटिक नर्व तन्त्र की तंत्रिकाओं से सप्लाई होती है । ट्रेकिया का रक्त संचार इन्फीरियरथायरायड आर्टरी तथा सिरा के ब्रेकियोकिफेलिक वेन में खुलती है, द्वारा होता है ।

श्वांस नलिका:

कंठ नलिका पांचवीं सर्वाइकल वर्टिब्रा के स्तर पर बंटकर दांयी व बांयी मुख्य श्वास नलिका बनाती है । दायीं मुख्य श्वास नलिका चौड़ी, छोटी व बांयी की अपेक्षा सीधे नीचे की ओर जाती है । यह लगभग 2.5 से॰मी॰ लम्बी होती है तथा यह दायें फेफड़े में जाती है ।

बांयी मुख्य श्वास नलिका लम्बी संकरी होती है तथा बगल की तरफ जाती है । यह लगभग पांच से॰मी॰ लम्बी होती है तथा बांये फेफड़े में जाती है । यह ग्रासनली के आगे तथा आर्च आफ एवोरटा तथा डिसेन्डिंग एवोरटा में पीछे से जाती है । बांयी पल्मोनरी धमनी पहले इसके ऊपर तथा बाद में इसके आगे स्थित होती हे । फेफड़ों में यह बंटकर छोटी-छोटी श्वास नलिकायें बनाती हैं, जिसमें सबसे छोटी टर्मिनल श्वास नलिका होती है ।

श्वास नलिका की रचना:

मुख्य श्वास नलिका तथा फेफड़ों में अन्य बड़ी श्वास नलिकाओं की रचना कण्ठ नलिका के समान होती है पर कार्टिलेज रिंग निश्चित दूरी पर स्थित नहीं होती है । बाहरी तह पर फाइब्रस टिश्यू की बनी होती है जिसमें कार्टिलेजिनस प्लेट होती है । मध्य तह में घेर में स्थित अरेखीय पेशियां पायी जाती है तथा आन्तरिक तह म्यूकस मेम्ब्रेन की होती है जिसमें म्यूकस एवं सीरस ग्रथियों पायी जाती हैं ।

फुफ्फुसावरण (प्लूरा):

प्रत्येक फेफड़ा एक बन्द झिल्ली से ढका होता है जिसे फुफ्फुसावरण कहते हैं । यह दो तहों की होती है । बाहरी-पेराइटल प्लूरा तथा अन्दर वाली विसरल प्लूरा । पेराइटल प्लूरा सीने की दीवार, मिडियास्टाइनम व डायाफ्राम की ऊपरी सतह से जुड़ी होती है तथा ऊपर की ओर यह गर्दन के आधार तक फैली होती है ।

विसरल लेयर फेफड़े की सतह से चिपकी होती है तथा फिसरों में अन्दर जाकर फेफड़ों को लोबों में बांटती है । प्लूरा की दोनों तहें फेफड़े के हाइलम व फेफड़े की जड़ों पर एक साथ रहती हैं । नीचे की ओर पल्मोनरी लिगामेंट के रूप में होती है । ये दोनों तहें एक दूसरे से बिल्कुल सटी रहती है तथा इनके बीच में बहुत ही कम मात्रा में द्रव्य पाया जाता है । जो दोनों को एक साथ रखने में मदद करता है पर जब इन दोनों तहों के बीच हवा आ जाती है तो फेफड़े सिकुड़ जाते हैं । इस स्थिति को न्यूमोथोरेक्स कहते हैं ।

फेफड़े:

दोनों फेफड़े मिडियसटाइनम में दांयी व बांयी प्लूरलकेवेटी में स्वतंत्र रूप से स्थित होते हैं तथा केवल हाइलम पर जुड़े रहते हैं जहां मुख्य श्वास नलिका, लिम्फ नलिकायें व पल्मोनरी रक्त नलिकायें फेफड़ों के अन्दर जाती है तथा बाहर वापस आती हैं ।

प्रत्येक फेफड़ा शंकु के आकार का होता है जिसमें एक एपेक्स, एक आधार तथा दो सतहें मिडियास्टाइनल व कास्टल होती हैं । दायां फेफड़ा बांयें की अपेक्षा थोड़ा-सा बड़ा होता है । जन्म के समय फेफड़े गुलाबी रंग के होते हैं जो उम्र के साथ वायुमण्डल के कार्बन तथा अन्य कणों के जमा होने से भूरे रंग के होते जाते हैं ।

फेफड़ों के एपेक्स गर्दन के निचले भाग तक फैले होते हैं । यह प्राय: पहली पसली के 2-3 से॰मी॰ उपर तक हो सकते हैं । प्रत्येक फेफड़े का आधार कानकेव (अवतल) होता है तथा डायाफ्राम पर स्थित होता है । डायाफ्राम का दांया डोम बायें की अपेक्षा थोड़ा-सा उपर स्थित होता है ।

प्रत्येक फेफड़े की अन्दर की सतह पीछे की ओर थोरेसिक वर्टिब्रा से तथा आगे की ओर मिडियास्टाइनल से संबंधित होती है । प्रत्येक फेफड़े की मिडियास्टाइनल सर्फेस का निचला भाग अवतल होता है जो बांयी तरफ की अपेक्षा दांयी ओर कम अवतल होता है ।

दांया फेफड़ा सुपीरियर वीनाकेवा, दांयी व्रेकियोकिफेलिकवेन के निचला भाग, एजाइगस वेन, दायीं वेगस नर्व व ग्रासनली से संबंधित होता है । निचला तथा अगला भाग उभारदार होता हे जो डायाफ्राम व सीने की गुहा से बने स्थान में स्थित होता है । दायां फेफड़ा एक ओवलीक (तिरछे) व ट्रान्सवर्स फिसर द्वारा तीन लोबों में विभाजित होता है, जबकि बांया फेफड़ा एक ओवलीक फिसर द्वारा केवल दो भागों में बंटा होता है ।

प्रत्येक लोब कई लोव्यूलों से मिलकर बना होता है तथा प्रत्येक लोव्यूल में टर्मिनल बन्क्रियोल, एयर सैक छोटी-छोटी पल्मोनरी व बेन्क्रियल रक्त नलिकायें, लिम्फ नलिकायें व नर्व स्थित होती हैं । प्रत्येक लोव की श्वास नलियां बार-बार विभाजित होकर छोटी-छोटी श्वास नलियां बनाती हैं । यह विभाजन टर्मिनल ब्रोन्कियोल बनाता है जो स्वयं विभाजित होकर रिसपिरेटरी ब्रोन्कियोल बनाता है, जिनका व्यास 0.2 मि॰मी॰ होता है ।

रिसपिरेटरी श्वासनली की दीवार में कोई कार्टिलेज नहीं होती है तथा उनकी सतह नान सिलियेटिड कयूबआईडल इपीथीलियम से ढकी रहती है । प्रत्येक रिसपिरेटरी व्रोंन्क्रियोल बंटकर एरिओलर नलिकायें, एरियओलर नलिकायें अट्रिया ओर प्रत्येक बंटकर कई एयरसेक्यूल बनाते हैं । पल्मोनरी एल्वियोलाथी की सतह प्लैट एपीथीलियम से ढकी रहती है । जिससे होकर गैसों का आदान प्रदान हो सकता है ।

फेफड़ों का रक्त संचार:

दायीं व बायीं पल्मोनरी धमनियां आक्सीजन रहित रक्त दायें वेन्ट्रिकिल से दायें व बायें फेफड़ों को पहुंचाती हैं । प्रत्येक पल्मोनरी धमनी कई कई बार बंटकर रक्त नलिकाओं को एअरसैक एवं एल्वियोलायी के चारों ओर एक जाल बनाती हैं । प्रत्येक फेफड़े से दो पल्मोनरी शिरायें जो कैपलरियों से रक्त एकत्र कर (जो ऑक्सीजन युक्त होता है । ) बायें आट्रियम में लाती हैं ।

फेफड़ों को रक्त डिसेन्डिंग एवोरेटा से निकलने वाली व्रोन्क्रियल धमनियों द्वारा पहुंचता है । तथा व्रोन्क्रियल शिराओं द्वारा दायीं तरफ एजाइगस शिरा व बायीं ओर हेमी एजागस शिरा में ले जाया जाता है । फेफड़ों कीनर्व सप्लाई सिम्पैथेटिक तन्त्रिका तथा वेगस नर्व से होती है । फेफड़ों, विसरल प्लूरा तथा श्वास नलियों से लिम्फ व्रोन्क्रोपल्मोनरी लिम्फ ग्रथियों में ले जाया जाता है ।

श्वसन की क्रिया:

श्वसन तन्त्र का मुख्य कार्य शरीर की कोशिकाओं को उचित मात्रा में (250 मिली॰ मिनट) ऑक्सीजन प्रदान करना तथा कार्बन डाइआक्साइड को (200 मिली॰ / मिनट) शरीर से बाहर निकालना है । हवा इन्सपिरेशन के द्वारा फेफड़ों में भरती है तथा इक्सपिरेशन के दौरान स्कैलीन पेशियां खिंचकर पहली पसली को नीचे जाने से रोकती हैं ।

इसी समय एक्सटर्नल इन्टर कास्टल पेशियां सिकुड़ कर सीने का आगे पीछे का व्यास बढ़ाती हैं तथा डायाफ्राम का मध्य टेन्डन अन्य पेशियां के साथ नीचे खिंचकर सीने का उपर नीचे का आयतन बढ़ाता है । इन्टरकास्टल तथा डायाफ्राम की पेशियों की नर्व सप्लाई क्रमश: बारहवीं थोरेसिक व तीसरी सर वाइकल नर्व से होती है ।

सामान्य श्वसन में सीने का आयतन बढ़ाने में डायाफ्राम मुख्य रूप से भाग लेता है तथा अधिक कार्य के समय श्वसन में इक्सटर्नल इन्टरकास्टल पेशियों के साथ स्टर्नो क्लीडोमेस्टोयड एवं स्कैलीन पेशियां भी भाग लेती हैं । शान्त श्वसन के समय हवा को स्कैलीन पेशियों, इन्टरनल इन्टरकास्टल पेशियों व डायाफ्राम के अपनी पुरानी स्थिति में आने के द्वारा शरीर के बाहर भेजा जाता है । जबकि कार्य के समय पेट की पेशियां पेट का आन्तरिक दाब बढ़ाकर इस कार्य को करती हैं । सामान्य श्वसन की दर 14 से 16 प्रति मिनट होती है ।

फुफ्फुस आयतन एवं क्षमता:

सामान्य सांस लेने की क्रिया के समय हवा का वह आयतन जो अन्दर लिया जाता है तथा बाहर निकाला जाता है ‘टाइडल वोल्युम’ कहा जाता है । यह 500 मिली॰ होता है । इसमें से केवल 160 मिली॰ ही एल्वियोलायी में गैसों के आदान-प्रदान के लिए पहुंचता है । शेष 140 मिली॰ श्वसन नलियों में रह जाता है जिसे डेड स्पेस कहते हैं ।

हवा का वह आयतन जो अधिकतम इन्सपिरेशन के पश्चात जोर लगाकर निकाला जा सके, उसे फेफड़े की वाइटल क्षमता कहते हैं । यह पुरुषों में 4.5 लीटर तथा महिलाओं में 3.5 लीटर होती है । जब इक्सापाइरोग्राम को समय से सम्बन्धित कर देते हैं तो इसे प्रथम सैकेण्ड का फोर्सड एक्सपाइरेटरी आयतन कहते हैं । सामान्य व्यक्ति को अपनी वाइटल क्षमता का 80 प्रतिशत भाग पहले सेकेण्ड में शरीर से बाहर निकालने में सक्षम होना चाहिए ।

यह फेफड़ों की रिस्ट्रक्टिव व आब्सट्रक्टिव बीमारियों में अलग-अलग होती है । जोर लगाकर सांस बाहर निकालने के पश्चात सीने में बची हुई श्वास का शेष आयतन (रजिडुवल वौल्यूम) कहते हैं । यह सामान्य वयस्क व्यक्ति में 1200 मिली॰ होता है ।

परन्तु वृद्धावस्था में कुछ बीमारियों जैसे अस्थमा व इम्फाइसीमा में अधिक हवा रुककर टाइडल वोल्यूम को बढ़ा देती हैं । ऊपर वर्णित सभी फेफड़ों के आयतन व क्षमताओं की सिर्फ ‘शेष क्षमता’ को छोड़कर स्पाइरोमीटर का प्रयोग कर मापें जा सकते हैं ।

श्वसन का नियंत्रण:

सामान्य अवस्था में वयस्क 14-16 बार प्रति मिनट सांस लेते हैं जबकि बच्चों में यह कुछ अधिक होती है । कसरत के समय शरीर की ऑक्सीजन की आवश्कता बढ़ जाती है तथा कार्बन डाईआक्साइड का निर्माण अधिक होता है । शरीर की इस आवश्यकता की पूर्ति मेडूला आब्लांगेटा, पान्स तथा मिडब्रेन में स्थित रिस्पिरेटरी सेन्टर की तन्त्रिकाओं द्वारा सांस लेने की दर बढ़ाकर की जाती है । सामान्य अवस्था में होने वाले श्वसन में इफरेन्टनर्व (फ्रीनिक) भाग लेती है ।

रक्त में आक्सीजन मात्रा कम होने, कार्बन डाइ आक्साइड के बढ़ने से तथा रक्त की एसिडिटी बढ़ने पर रिस्पिरेटरी सेन्टर कार्य करने लगता है । इनमें से रक्त में बड़ी हुई कार्बन डाइ आक्साइड की मात्रा श्वसन केन्द्र को मेडुला आब्लागेटा में स्थित रासायनिक रिसेप्टरों द्वारा सबसे अधिक प्रभावित करती है । इसी प्रकार रक्त में आक्सीजन की कमी जैसे ऊँचाई पर भी इसे प्रभावित करती है ।

इनके रिसेप्टर एओरिटिक और कैरीटिड बाडी में स्थित होते हैं । यही स्थिति फेफड़ों की क्रोनिक बीमारियों में भी होती है । नाक से ली गयी सांस तथा एल्विओलाई में स्थित हवा में काफी फर्क होता है जिसे तालिका नम्बर 3.2 में दिखाया गया है ।

ली गयी सांस में आक्सीजन की मात्रा अधिक होती है जबकि एल्विओलाई में स्थित हवा में कार्बन डाइ आक्साइड की । अत: आक्सीजन का पारशियल प्रेशर ली गयी सांस में अधिक होता है जबकि एल्विओलायी की हवा में कार्बनडाइ आक्साइड का जो एल्विओलो-कैपिलरी मेम्ब्रेन द्वारा होने वाले आदन-प्रदान का एक प्रमुख भाग है ।

रक्त में हवा का परिवहन:

आक्सीजन मुख्य रूप से लाल रक्त कणिकाओं द्वारा आक्सीहीमोग्लोबिन के रूप में ले जायी जाती है । कोशिकाओं में जहां आक्सीजन का दाब कम है, आक्सी हीमोग्लोबिन टूटकर कोशिकाओं के श्वसन के लिये आक्सीजन प्रदान कर देता है ।

कार्बन डाइ आक्साइड जो आक्सीजन की अपेक्षा रक्त में अधिक घुलनशील है, को शरीर की कोशिकाओं से फेफड़ों की रक्त नलिकाओं तक बाइ कार्बोनेट के रूप में तथा कुछ मात्रा में हीमोग्लोबिन से जुड़कर कार्बोमीनो हीमोग्लोबिन के रूप में ले जायी जाती है ।

हीमोग्लोबिन की घटी हुई मात्रा कार्बन डाइआक्साइड के प्रति ज्यादा आकर्षित होती है, अत: कोशिकाओं में जहां आक्सीजन का दाब कम है आक्सी हीमोग्लोबिन टूटकर आक्सीजन प्रदान करता है और कार्बन डाई आक्साइड रक्त द्वारा ऊपर लिखित भिन्न रूपों में ले ली जाती है ।

एल्विओलो-कैपिलरी मेम्ब्रेन से यह गैसों का आदन-प्रदान कुछ स्थितियों में कठिनाई से हो पाता है जैसे एम्फाइसीमा जैसी बीमारियों में यह नष्ट हो जाती है तथा कुछ बीमारियों में जैसे फाइब्रोसिस में यह मोटी हो जाती है ।

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